इस रचना अभिव्यक्ति में यथार्थ भाव-भूमिका को चतुर चितेरे की भॉति कवि ने अपनी प्रज्ञा-तूलिका से चित्रित किया है।
हाल न पूछो रिंदों का, सुनकर बुखार चढ़ जाता है । जब सुरा गले से उतर गई मन में खुमार बढ़ जाता है। फिर भी कहते पीने वाले, है मधुशाला कितनी नूपुर हो जाये सब तहस-नहस, छूकर मदिरा का विष-अंकुर ।
तपा-तपा कर अंगूरों को, हुई प्राप्त है जो हाला । शीतल कैसे कर सकती, पीने वालों की उर ज्वाला। आस लिये जाता मदिरालय, पीनेवाला बहुरि-बहुरि। हो जाये सब तहस-नहस, छूकर मदिरा का विष-अंकुर।
इस रचना अभिव्यक्ति में यथार्थ भाव-भूमिका को चतुर चितेरे की भॉति कवि ने अपनी प्रज्ञा-तूलिका से चित्रित किया है। साहित्य समाज का दर्पण है। समाज में नैतिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की अवमानना को दृष्टिगत करते हुये रचनाकार ने अपनी कसक, पीड़ा, वेदना को इस तरह उकेरा है, कि आप पाठक के हृदय को स्पंदित करे।
और आप आज के सामाजिक कुरीतियों, बुराइयों से अपने आप को बचा सकें। यही कारण है, लेखक ने निम्न पंक्तियों द्वारा हमको और आपको शराब के प्रति सजग रहने का सशक्त संदेश दिया है।
काशी मेरी जन्मभूमि है। मैं चिकित्सा-जगत में कार्यरत, मुंबई महानगर की पावन धरती के आंचल में पलते हुये, छोटी-मोटी रचनाओं को आकार देने के प्रयास में यह सूक्ष्म काव्यकृति, विश्व के उन समस्त व्यक्तियों को सप्रेम समर्पित करता हूँ, जिनके अच्छे स्वास्थ, सच्ची कर्तव्यनिष्ठा एवं विभिन्न प्रकार की आथक तथा सामाजिक बुराइयों से वंचित, चरित्र द्वारा ही किसी भी राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य निर्माण की कल्पना की जा सकती है।
उनके इस उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग में नईनवेली दूल्हन की तरह सजी हुई, मोहक मधुशाला का आकर्षण, तथा पीनेवालों का स्वागत करने के लिये बन-ठन कर तैयार, साकीबाला की मदिर आंखें एवं मधुजन के अंधरों को चूमकर मदहोश कर देने के लिए उतावली, प्याले में छलकती हुई मादक मदिरा,जो सम्पूर्ण मानव जाति को अपने कर्तव्यों से वंचित कर देने में पूर्णतया सक्षम है, रोड़ा बनकर न आ सके।
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